खुद के लिए जीये !

कभी कभी लगता है, सब कुछ हार जाये…
लेकिन मुक्कमल तो इस जहाँ में कुछ नही है, सब कुछ हारना भी नही!
कई बार लगा कि बस यही सबसे गहरी खाई है जिंदगी की, कितना भी अब कुछ होगा लेकिन इतना गहरा कुछ नही होगा…
लेकिन ऐसी गहराइयाँ भी आई कि
वो बोलते है ना see light at the end of tunnel…
वो भी नही थी,
घुप्प अंधकार….
और अंदर ही अंधेरा हो तो बाहर की दीवाली का कौन सा जश्न मनाये।

मुझे एक कहानी हमेशा याद आती है मुंशी प्रेमचंद की,
उसमे भाई साहब जाड़ों के दिनों ( पूस का महीना शायद ) में अपने छोटे भाई को एक चिट्ठी थमाते थे
कि जाओ इसे अर्जेंट में पोस्ट आफिस में डाल आओ..
भाई ने वो ली और निकल पड़ा…
बीच रास्ते मे एक जलहीन कुआं पड़ता था और उसमें एक विषधर काला नाग रहता था,
बच्चे उसमे पत्थर फेंकते और नाग की फुफकार सुनते…
छोटे भाई को वही खेल याद आ गया और वो पत्थर कुए में फेकने लगा पर तभी अचानक से वो चिट्ठी हवा के साथ सरसराती हुई कुए में गिर गई।

अब भाईसाहब का डर बहुत था और इतना ज्यादा की,
तय किया गया कि कुए में उतर कर चिठी उठाएंगे लेकिन ये हिम्मत नही थी कि घर वापिस जाए और झूठ बोल दे कि चिठी खो गयी या पोस्ट आफिस में डाल आये हैं या फिर सच कह दे कि गिर गयी वो कुए में …

कहानी में छोटे भाई के कुँए में उतरने, सांप से बचने और अंत में चिठ्ठी उठा लेने को मुंशी जी ने अच्छे से बयान किया है…
इतना अच्छा कि मुझे कहानी पढ़ते समय लगा कि मैं वही कुँए की मुँडेर पे खड़ी हुई,
ये तमाशा अपनी आंखों से साक्षात देख रही हूं।

हालांकि कहानी के अंत मे पता चलता है कि अगर उस चिठ्ठी को कुए में छोड़ दिया जाता तो भी भाईसाहब को बहुत फर्क नही पड़ता,
पत्र ही तो है, दुबारा लिख सकते थे…
लेकिन छोटे भाई के लिए वो पत्र ही जिंदा रहने की टिकट थी जैसे… उसे अपने जीवन का महत्व नही लगा उस पत्र के सामने,
और कारण बस एक…
भाई साहब का क्रोध!

मैंने उस कहानी को पढ़ने के बाद यही सोचा था कि क्या होता अगर वो पत्र उसी कुए में रहने दिया जाता…
आखिर कितना बड़ा होता भाईसाहब का गुस्सा….

लेकिन आज लगता है कि मैं भी तो एक कुए के सामने खड़ी हूं…
दूसरों के उम्मीदों का बोझ लिए, और सामने वो अंधेरा गहराता जा रहा है…
अगर मैं वो चिठ्ठी उठा लाती हूं तो क्या किसी को पता भी चलेगा कि मैंने क्या क्या खो दिया बस किसी और के सपनो के लिए, कुछ आंखों में अपने लिए प्रंशसा देखने के लिए…
या फिर वो भी भाईसाहब सा सवाल पूछेगे की डाल आये चिठ्ठी और अपनी दूसरी चिठ्ठी लिखने में व्यस्त हो जायेगे…
मैं बस वही खड़ी रह जाऊँगी, उस बरामदे में सर्द हवाओं के बीच…
और मेरे भीतर भी सदा के लिए सब शीत हो जाएगा…

या फिर कह दूँ जाकर, नही डालनी मुझे कोई चिठ्ठी… गिर गयी वो कुए में जहां मासूमियत और सपनों को डसने वाला काला नाग रहता है…
क्या जरूरत है मुझसे इतनी उम्मीद भी रखने की…
मुझे बस अपने कमरे में जाकर इन सर्द हवाओं पर कुछ लिखना है… और वो पन्ने बहुत जाड़ो में जलाये भी जा सकते है, अलाव की तरह…

कम से कम मेरे लिखे कुछ पन्ने मेरे अंदर की गर्माहट तो सहज के रखेगे!